मंगलवार, 20 नवंबर 2018

कोजागरा और मिथिला

अशोक झा 

मैं मैथिल हूँ तो मुझे यह कहने का शायद पूरा हक है मुझे कि शरत पूर्णिमा का यह चाँद मिथिला से सर्वाधिक सुंदर दिखता है. वैसे अन्यत्र भी यह रात उतनी ही सुंदर होती है. श्वेत धवल इजोरिया, दूर दूर तक फैले धान के खेत और पोखरों के ऊपर लटकी हल्की धुंध के साथ मिलकर एक ऐसी छटा बिखेरती है जिसे आपने अगर नहीं देखा है तो इसकी कल्पना नहीं कर सकते और अगर देखा है तो इसके वर्णन को शब्दों में बांधना आपके लिए मुश्किल होगा. इस मनोहारी दृश्य को देखना जीवन के सर्वाधिक खूबसूरत पलों से होने वाले साक्षात्कार जैसा है.
चलिए, अब जरा लोगों के घर आंगन में भी जाकर झांक लीजिये. यह भी शायद मिथिला में ही होता है. जिनकी बेटी की शादी उस साल कोजागरा से पहले हुई है, वे अपने जमाई के घर "भार" भेजते हैं- कोजागराक भार. बेटी के बाप से उम्मीद की जाती है कि वह लड़के वाले के घर मखान, मिठाई और दही का भार भेजेंगे. यह भार ले जाने वाला भरिया कहलाता है. बांस के डंडे के दोनों ओर रस्सी से सुरक्षित तरीके से लटकाये गए मिठाई से भरे चंगेरा (डाला) में तरह तरह की मिठाई से भरा यह भार या फिर अलग अलग तरह की मिठाइयों से भरे कई-कई भार भेजे जाते हैं. आप कितना भार भेजते हैं यह पूरी तरह आपकी जेब पर निर्भर करता है. मखान बोरियों में भरकर भेजा जाता है. कार्तिक की इस शरद पूर्णिमा की रात में दूर दराज के गांव की सुनसान कच्ची सड़कों पर इन्हें जाते हुए देखना भी विशिष्ट होता है, जो कि अब शायद बहुत कारणों से कम हो गया है. पर अब kind की जगह cash ने ले ली है. लड़की वालों को लड़के के लिए कपड़ा भेजना होता है जिसमें गर्म कपड़े ही होते हैं, मसलन शॉल, कम्बल, सूट, पैंट, किसी जमाने में रेडियो और साइकिल भी हुआ करता था. और धनी हो या ग़रीब, सबको यह करना ही पड़ता है. मिथिला में बेटी की शादी में जमीन शादी के बाद शायद कोजागरा और मधुश्रावणी में सबसे ज्यादा बिकती है. मधुश्रावणी से भी ज्यादा कोजागरा में. फिर हर गांव में लड़का वाला, लड़की वाले के घर से आये इस मखान और मिठाई को अपने गांव के लोगों में बांटता है. तो शरद पूर्णिमा के इस मनोरम रात में गांव के एक टोल से दूसरे टोल मखान लेने के लिए भागते दिखते अधीर ग्रामीणों के समूह का संचरण भी अपूर्व दृश्य उपस्थित करता है. फिर अगर किसी ने पूरे गांव को भोज दे दिया तो फिर तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है. मिथिला के बड़े गांवों में एक आदमी अवर कोजागरा के दिन 2 किलो मखान की कम से कम आमद कर लेता है तो उसे बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं कहा जाता. लड़की वालों का यह शोषण शरद पूर्णिमा की इस रात की अप्रतिम छटा को कलुषित कर देता है.

दिल्ली
हम कहने रही अहाँ के !
-अशोक झा
हम देखि रहल छी -
हमर जीवनक
एकटा पुरान अध्यायक
अंतिम पृष्ठ
एखनहि पढैत-पढैत
अहाँ बेचैन भ उठलहुं अछि
हम देखि रहल छी.
हम देखि रहल छी -
अहाँ अपना गरदनि के
पाछू लिबा क’
कुरसी पर टिका लेने छी
अहाँक आंखि
टटोलि रहल ऐछ किछु
कोनो प्रश्नक उत्तर खोजि रहल छी अहां
या, फेरि कोनो उत्तर के प्रश्न बना
शून्य में उछालि रहल छी
कुर्सीक हत्थाक नींचा
अहाँक झुलैत हाथ में पोथी
ओहिना लटकल ऐछ
हम देखि रहल छी.
हम देख रहल छी -
अहाँ असंयत भेल जा रहल छी
अहांक सांस फूलि रहल ऐछ
पुस्तक पर अहांक आंगुरक दबाब
कम भ रहल ऐछ
अहांक शरीरक आतंरिक संवाद
बाधित भ रहल ऐछ
हम देख रहल छी.
हम देख रहल छी -
हमरा नहीं पता
हमर जीवनक ई अंतिम अध्याय
अहांके एना कियैक
व्यग्र क’ देलक
याद ऐछ ने -
हम कहने रही अहाँ के
जखन हम नै रहब
जीवनक घाट पर
छूटल, असगरे अहाँ
स्मृतिक ओहि पोखैर में बेसी गोंता लगायब
जकर पानि में हम दुनु गोटे
मिलि क’ मिश्री घोरबाक यत्न केने रही
हम कहने रही अहाँ के
याद ऐछ ने –
जीवन में सबटा चीज के बटिखारा स
तौलल नहीं जा सकैत छै
आ फेर एहन जीवन के
जीवनो त नै कहबै!
अहाँ सोचि रहल छी ने यैह सब?
याद ऐछ ने?
हम कहने रही अहाँ के !

बुधवार, 30 अगस्त 2017

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

हर दिन




हर दिन
जब दिन से छिन जाता है 
उस दिन का सूरज
शाम के दामन में 
वह तोड़ देता है अपना दम 
और पीछे छूट  जाता है 
एक कोलाहल 
जिसमें दबा रह जाता है   
हमारे और तुम्हारे 
जीवन-संघर्ष का संगीत 

हर शाम जब 
फलक पर सजते हैं 
असंख्य दीये 
कहीं न कहीं 
रोशनी का एक कतरा 
सिर छिपाने के लिए 
ढूंढ रहा होता है 
एक एकांत 
और अंधकारमय  
कोना 

हर रात जब 
अपनी मंजिल से दूर 
धरती के किसी अनजान हिस्से में  
किसी पथिक की आँखें 
ढूंढती हैं कोई आश्रय 
दूर कोई गा रहा होता है  
दिन की  मर्शिया  का 
अंतिम पद

अशोक 
मीना बाजार 
दुबई 


गुरुवार, 28 जून 2012

दम तोड़ता एक पुस्तकालय


दरभंगा में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के कैम्पस के नजदीक एक पुस्तकालय है. पुस्तकालय का होना तो आश्चर्य नहीं पैदा करता पर शनिवार के दिन भी इसके खुले होने कि उम्मीद मुझे नहीं थी. किसी पुस्तकालय को इतना अनाकर्षक मैंने कहीं नहीं देखा था. अगर इस भवन के बाहर पुस्तकालय नहीं लिखा होता तो शायद मुझे इस भवन में प्रवेश करने के बाद भी पता नहीं चलता कि यह पुस्तकालय है. पुस्तकालय की लौबी में एक दो टेबल लगे थे और एक दो कुर्सियां भी थीं जिनपर पाँव डाले लोग खैनी रगड़ने में व्यस्त थे. लौबी का माहौल कतई ऐसा नहीं कि आपको लग सके कि आप किसी पुस्तकालय में आये हैं. पर अगर आप कट्टर पुस्तक प्रेमी हैं तो यह भी झेल लेंगें. पर मुख्य हाल, जहां पर पुस्तकें रखी गयी हैं-उसका हाल देखने के बाद आपके धैर्य की सारी सीमाएं टूट जायेंगीं. 


जिस दिन मैं इस पुस्तकालय में गया उस रात दरभंगा में बारिश हुई थी. पुस्तकालय भवन के बाहर पानी का ऐसा जमाव नहीं था जिससे आपको लग सके कि यहाँ पिछली रात बारिश हुई पर पुस्तकालय के अन्दर जाते ही, छत से टपकती हुई पानी कि बूंदें, भीगा हुआ फर्श और कहीं कहीं फर्श पर बने गड्ढों में जमा पानी बारिश के बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं रहने देता. एक बेंच पर बारिश में पूरी तरह भीग चुकी कुछ पुस्तकों को उठाकर रख दिया गया था और उसके पास ही गोंद की एक बोतल भी पडी थी जो शायद इस बात का संकेत था कि किसीने इन पुस्तकों की मरहम पट्टी करने कि सोची है. पुस्तकालय के अन्दर बड़ी बड़ी हवादार खिडकियों के बावजूद वहाँ की हवा दमघोंटू थी. मेरा दम घुट रहा था. हो सकता है कि अव्यवस्था को सहने का जिस तरह हम आदी हो चुके हैं उसको देखते हुए आप यह भी बर्दाश्त कर लेंगें. पर सिर्फ तभी तक के लिए जब तक कि आप आलमारियों में बेतरतीब से रखे पुस्तकों में से किसी एक पुस्तक को जिज्ञासावश निकालने के लिए अपने हाथ नहीं बढ़ा देते. पुस्तकों पर इतनी मोटी धूल कि किसी भी पुस्तक का नाम तक पढ़ना मुश्किल. आलमारियों पर लगे मकरजाला को देखकर तो यही लगता था कि शायद महीनों से किसी ने इन पुस्तकों को हाथ नहीं लगाया है और महीनों या यूं कहें सालों से इनपर जमी धूल को किसी ने झाड़ने की जहमत नहीं उठायी है.  
मुझे नहीं लगा कि पुस्तकालय के कर्मचारियों को इस बात का आभास भी था कि नहीं कि वे पुस्तकालय में काम करते हैं. पुस्तकालय को जिस स्थिति में इन कर्मचारियों ने रखा हुआ है उससे तो यही लगता है कि उन्हें किसी भी तरह का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है. उनके लिए पुस्तकालय में काम करना किसी अन्य दफ्तर में काम करने से कतई अलग नहीं. 
पुस्तकालय में कर्मचारियों का अभाव है ऐसा नहीं लगता.पर पुस्तकालय का रखरखाव कौन करे. एक टेबल पर कुछ कुछ किताबें रखी थीं और एक सज्जन, जो हर तरह से उस पुस्तकालय के अभिभावक लग रहे थे, गर्दन में बेल्ट लगाए एक महिला से बातचीत में मशगूल थे. उनकी कुर्सी से महज कुछ दूरी पर ही पिछली रात की आंधी-तूफ़ान में कुछ पुस्तकों से आजाद हुए कुछ पन्ने बिखड़े पड़े थे पर उनको या किसी और कर्मचारी को भला इस बात से क्या लेना देना. 
यहाँ संसाधनों का कतई अभाव नहीं है. जिस बात का अभाव है वह है ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का. इस पुस्तकालय की यह दशा सिर्फ इस लिए है क्योंकि उसके लाइब्रेरियन से लेकर अन्य कर्मचारी तक सब के सब कामचोर हैं. किसी को इस बात से मतलब नहीं कि वे कितने अहम् संस्थान में काम करते हैं और उनकी कर्मठता उनके शहर की प्रतिष्ठा बढायेगी और लोगों में पुस्तक प्रेम जगाने का वह जरिया बन सकते हैं. पुस्तकालय में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है कि उनके पुस्तकालय में पुस्तक प्रेमियों का हमेशा मेला लगा रहे. पर इस सब की कल्पना दरभंगा में करना ....छोडिये इन बातो को. मैथिलों की एक ही खूबी है और वो यह कि वो गाल अछा बजा लेते हैं...अपनी खुद की पीठ को थपथपाने की कला कोई यहाँ के लोगों से सीखे. 

बुधवार, 18 जनवरी 2012

मन में होता है


मन में होता है 
मैं चलता जाऊं 
ऐसे ही 
हवा के साथ 
मैं बहता जाऊं 
वेगवती 
धारा के साथ 
ऐसे ही 
मैं किरणों को 
आंजुर में उठाऊँ 
और फेंक दूं 
तुम्हारी ओर 
मैं दौडूँ 
लहरों पर 
मैं खींचूँ 
अमिट लकीर 
रेत पर 
मैं बादलों से ले लूं 
उसका रंग 
और लेप दूं 
सीपी के गाल पर 
मैं छोड़ दूं 
लहरों की छाती पर 
कागज़ की अपनी नाव 
और इंतज़ार करूं
हथेली पर चाँद के 
उतरने का