सोमवार, 28 नवंबर 2011

किसका हित देखें- देशी कंपनियों का या आम उपभोक्ताओं का ?

कई बार किसी मुद्दे पर शोरगुल को जानबूझकर इतना बढाया जाता है की लोगों को यह पता नहीं लग सके की सच क्या है. मौके का फायदा उठाकर झूठ को सच बनाकर परोस दिया जाता है. फिर चूँकि आम लोगों तक बातें सिर्फ और सिर्फ मीडिया के द्वारा आती है, और मीडिया के अपने हित हैं, सो हम आम आदमी से वह सत्य हमेशा के लिए दूर ही रह जाता है. उससे हमारा साक्षात्कार शायद ही कभी हो पाता है. फिर एक और समस्या आती है. और यह समस्या है विश्वास की. किस के कहने पर विश्वास करें. कौन सच बोल रहा है. क्योंकि हर ऐसे स्रोत जिससे सही सूचनाएं आने की संभावनाएं हैं, वे सब के सब संदेह के घेरे में हैं.  जहां हर आदमी और संस्था सिर्फ पैसे बनाने के लिए ही अपना वजूद बनाए रखना चाहती है , वैसे में इस तरह के वातावरण के बन जाने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. और तो और, जिन गैर सरकारी संगठनों से यह उम्मीद की जाती थी की वे सच बोलेंगें, उनकी भी विश्वसनीयता संदेह के घेरे में हैं. हो सकता है, इनमें बहुत सारे ऐसे होंगें जो विश्वसनीय हैं पर उनकी आवाज़ भी तो इस कोलाहल में सुनायी नहीं देती. यहाँ तो जो जोर से बोल लेता है उसी की आवाज पहुँचती है और सुनी जाती है भले ही वह सत्य से परे ही क्यों न हो. 

रिटेल सेक्टर में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का विधेयक लाकर केंद्र सरकार ने बवाल खडा कर दिया है. वैसे इस विधेयक पर बवाल होगा यह सबको पता था. फिर सरकार भला क्यों नहीं इससे अवगत हो. सो उसने यह सब जान बूझकर किया है. वो यह दिखाना चाहती है, देश की जनता को की इस विधेयक का विरोध कौन लोग कर रहें हैं.  वह इसमें सफल रही है. पर वह जनता को यह बता नहीं पायी है की इस विधेयक से उनको फायदा क्या होने जा रहा है. और यह काम अगर सरकार विधेयक लाने से पहले करती तो जनता को शायद इसके विरोध करने वालों के बारे में अपनी राय कायम करने में ज्यादा आसानी होती. सरकार को भी कम प्रयास से इस विधेयक का विरोध करने वालों का जनता के सामने पोल खोलने में आसानी होती. पर अगर सरकार सुलझी हुई बातें करेगी तो फिर सरकार कैसी? सो अब एक बड़े  बवाल के हम गवाह बन रहे हैं. 

हर मुद्दे के समर्थक और विरोधी होंगें और इस तरह के हर कदम के अपने फायदे और नुक्सान हैं. जिस विधेयक पर बवाल हो रहा है उसके साथ भी यह बात है. पर इस आधार पर हम विधेयक को ही पूरी तरह खारिज कर दें यह तो अनुचित होगा. इस विधेयक का विरोध इसमें निहित कमियों को दूर करने के लिए होना चाहिए. हमने रिटेल सेक्टर में मल्टी ब्रांड देशी कंपनियों को अनुमति दे ही चुके हैं. अब अगर हम इस तरह की विदेशी कंपनियों को यह अनुमति देना चाहते हैं तो इस पर बवाल क्यों? क्या ऐसा है की हमें अगर हमारे देश वाले लूटें तो ठीक है, विदेशी न लूटें? आज वैश्वीकरण के इस जमाने में देशी कंपनियों और विदेशी कंपनियों में अंतर क्या रह गया है? हमारी कम्पनियां भी तो अन्य देशों में जाकर कारोबार कर रही हैं. हमारी ही कम्पनियां चीन में अपने उत्पादों की फैक्ट्री लगा चुकी है और वहाँ बनी हुई वस्तुएं हमें वापस बेच रही हैं. हमारे देश में मौजूद विदेशी कम्पनियां यहाँ "जय हिंद" का नारा लगाती हैं और हमारे क्रिकेट टीम के जीतने पर जश्न मनाती हैं. वो शायद ऐसा सब कुछ करती हैं जो एक देशी कंपनी से ही हम उम्मीद करते हैं.
इस विरोध से किसको फायदा है ?

जब हम अपने देश में मल्टी ब्रांड विदेशी कंपनियों के आने का विरोध करते हैं तो ऐसा करते हुए हम किसकी जान बचाते हैं? क्या हम ऐसा करके उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा की बात करते हैं? नहीं. जबकि हमारा उद्देश्य यही होना चाहिए. इस विधेयक का विरोध करने वाले राजनीतिक दल हमें सन्देश तो यही दे रहे हैं की हम उपभोक्ताओं के हित की रक्षा की बात कर रहे हैं पर ऐसा है नहीं. वे हमारे देशी कंपनियों को विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पर्धा से बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. आम आदमी जो की उपभोक्ता है, इनमें कहीं नहीं है यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए. 

ये विदेशी कम्पनियां आयेंगीं तो क्या होगा? 
ये विदेशी कम्पनियां अगर हमारे देश में आती हैं, तो निश्चित रूप से हमारे रिटेल सेक्टर का काया कल्प हो जाएगा. एक उदाहरण है. हमारे देश में मोहन मीकिन्स नामक के कंपनी है जो शराब बनाने के अलावा कॉर्नफ्लेक भी बनाती और बेचती है. अगर अपने देश में केलौग के आने के पहले किसी ने मोहन के कांर्न्फ्लेक खरीदे होंगें तो उन्हें याद होगा की उसकी क्या गुणवत्ता थी और उसकी पैकिंग कैसी हुआ करती थी. पर केलौग के आने के बाद अब ज़रा उसी कंपनी के इस उत्पाद की गुणवत्ता और पैकिंग जाकर दुकानों में देख लीजिये-वह केलौग को टक्कर देती है. और मैं केलौग की जगह मोहन के कोर्न्फ्लेक खरीदना ज्या पसंद करता हूँ. मोहन के उत्पादों में यह सुधार सिर्फ प्रतिस्पर्धा की वजह से आयी क्योंकि बाजार में बने रहने के लिए उसको प्रतिस्पर्धी होना पडा नहीं तो केलौग उसे निगल जाती. पर मोहन का कांर्न्फ्लेक ज़िंदा है और वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बन गया है. इससे फायदा किसे हुआ? हम उपभोक्ताओं को. और यह संभव नहीं था अगर केलौग नहीं आती. हम कहना यह चाहते हैं की प्रतिस्पर्धा से उपभोक्ताओं को गुणवत्ता और कीमत दोनों ही मोर्चों पर फायदा होता है.  
सो यह स्पष्ट है की रिटेल क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा के लिए खोलना जरूरी है ताकि वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार आये. बाजार में हमें चुनाव करने में आसानी होगी और प्रतिस्पर्धा की वजह से वस्तुओं की कीमतों में कमी होगी. प्रतिस्पर्धा क्या होती है यह दूरसंचार (टेलीकॉम ) क्षेत्र में हम देख ही रहे हैं. और २ज्ञी  घोटाले के बावजूद ऐसा संभव हो पाया है. 

दूसरा मुद्दा है वस्तुओं को एक जगह से दूसरे जगह ले जाने के लिए जरूरी आवश्यक आधारभूत सुविधा की. रिटेल क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के आगमन से "लौजीस्तिकल" सुविधाएं सुधरेंगीं क्योंकि उसके बिना इन विशालकाय दुकानों में वस्तुओं की समय पर सुरक्षित आपूर्ति संभव नहीं है. क्या इससे किसानों को फायदा नहीं होगा जिनके उत्पाद बाजार में पहुँचने से पहले ही नष्ट हो जाते हैं? क्या हमें फायदा नहीं होगा जो मजबूरी में दुकानों से बासी, मुरझाई हुई साग-सब्जी उठाकर लाते हैं और कीमत भी ज्यादा देते हैं.

इस तरह ज़रा अनुमान लगाइए की रिटेल क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को आने की अनुमति देने से कितने रोजगार पैदा होंगें. दुकानों से लेकर मालों को लाने-ले जाने के कार्यों तक में लोगों को रोजगार के कितने अवसर मिलेंगें? जो लोग रिटेल में विदेशी निवेश की अनुमति का विरोध कर रहे हैं वास्तव में उनके अपने अपने स्वार्थ हैं. इस मुद्दे को राजनितिक पार्टियों के अजेंडे से अलग हटकर देखा  जाना चाहिए-विशुद्ध रूप से एक उपभोक्ता की नज़र से. हाँ, इस तरह की कंपनियों से कच्चा माल आपूर्ति करने वाले स्थानीय छोटे-छोटे किसानों या उत्पादकों को बचाने के लिए किस तरह के उपाय क़ानून में किये जा सकते हैं इस पर जोर दिया जाना चाहिए .

एक और बात. इन दुकानों में महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा रोजगार मिलेगा और शायद यह इससे होने वाले फायदों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. प्राइवेट बैंकिंग ने जिस तरह से महिलाओं के लिए रोजगार उपलब्ध कराने में नए आयाम जोड़े हैं उसी तरह यह क्षेत्र भी महिलाओं के लिए वरदान साबित होगा. 
और सबसे बड़ी बात यह कि एक उपभोक्ता के रूप में हमारे पास अपनी वस्तुओं के चुनाव के ज्यादा अवसर मिलें इससे हमें कोई रोकने वाला कौन होता है? एक उपभोक्ता के रूप में मैं रिलायंस के स्टोर में  जाकर सामान खरीदूं या वाल मार्ट में, कोई मुझसे चुनाव कि यह आजादी  छीनने वाला कौन होता है?  और मैं निस्संदेह वालमार्ट में सामान खरीदूंगा अगर मुझे वहाँ रिलायंस से ज्यादा सस्ता और अच्छा सामान मिलता है. 

किसी जमाने में इस देश में हिन्दुस्तान मोटर्स की अम्बेसडर कारें ही बिका करती थीं. क्या हमारे देश में अब विदेशी कारें नहीं बिक रही हैं? और क्या उनके साथ साथ टाटा की कारें नहीं बिक रही हैं या उनके आने से टाटा ने अपनी दुकानें बंद कर लीं? उलटे, देशी कम्पनियां इन विदेशी कंपनियों को अपने हिसाब से कड़ी टक्कर दे रही है. 

क्या किसीको बंगलोर में शुरूआती दिनों में केऍफ़सी के विरोध में चले आन्दोलन के बारे में कुछ याद है? क्या कोई कह सकता है की बंगलोर में इस समय केऍफ़सी नहीं है. इस विरोध का एक और आयाम है. समाज का जो संपन्न वर्ग है वह अपने लिए, जो भी वह चाहता है, देश-विदेश कहीं से मंगा लेता है. इस सुविधा से वंचित वो लोग होते हैं जो अपेक्षाकृत उतने धनी नहीं हैं और अपने पसंद की चीज़ें अपने पास के बाज़ार से ही खरीदने के लिए मजबूर हैं. क्या इन लोगों को ऐसे बाज़ार की सुविधा सुलभ नहीं होनी चाहिए जो संपन्न लोगों को है? क्या बाजार की प्रतिस्पर्धा का फायदा उन्हीं लोगों को मिलना चाहिए जो ज्यादा पैसे वाले हैं और बड़े शहरों में रहते हैं? 

इस तरह के मुद्दों पर लोगों में मतविभाजन स्वाभाविक है पर इस घमासान में आम लोगों के हितों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. आज के वैश्वीकरण के ज़माने में देशी कंपनियों को प्रतिस्पर्धा से बचाना एक नए तरह का भ्रष्टाचार है, इसे कहीं से देश सेवा नहीं मानी जानी चाहिए. वैसे अब भी अपने देश में कुछ लोग विदेशी कंपनी के नाम पर आम लोगों को डरा रहे हैं और शायद खुद को बड़ा देशभक्त साबित करने की कोशिश करते हैं. 

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