गुरुवार, 28 जून 2012

दम तोड़ता एक पुस्तकालय


दरभंगा में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के कैम्पस के नजदीक एक पुस्तकालय है. पुस्तकालय का होना तो आश्चर्य नहीं पैदा करता पर शनिवार के दिन भी इसके खुले होने कि उम्मीद मुझे नहीं थी. किसी पुस्तकालय को इतना अनाकर्षक मैंने कहीं नहीं देखा था. अगर इस भवन के बाहर पुस्तकालय नहीं लिखा होता तो शायद मुझे इस भवन में प्रवेश करने के बाद भी पता नहीं चलता कि यह पुस्तकालय है. पुस्तकालय की लौबी में एक दो टेबल लगे थे और एक दो कुर्सियां भी थीं जिनपर पाँव डाले लोग खैनी रगड़ने में व्यस्त थे. लौबी का माहौल कतई ऐसा नहीं कि आपको लग सके कि आप किसी पुस्तकालय में आये हैं. पर अगर आप कट्टर पुस्तक प्रेमी हैं तो यह भी झेल लेंगें. पर मुख्य हाल, जहां पर पुस्तकें रखी गयी हैं-उसका हाल देखने के बाद आपके धैर्य की सारी सीमाएं टूट जायेंगीं. 


जिस दिन मैं इस पुस्तकालय में गया उस रात दरभंगा में बारिश हुई थी. पुस्तकालय भवन के बाहर पानी का ऐसा जमाव नहीं था जिससे आपको लग सके कि यहाँ पिछली रात बारिश हुई पर पुस्तकालय के अन्दर जाते ही, छत से टपकती हुई पानी कि बूंदें, भीगा हुआ फर्श और कहीं कहीं फर्श पर बने गड्ढों में जमा पानी बारिश के बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं रहने देता. एक बेंच पर बारिश में पूरी तरह भीग चुकी कुछ पुस्तकों को उठाकर रख दिया गया था और उसके पास ही गोंद की एक बोतल भी पडी थी जो शायद इस बात का संकेत था कि किसीने इन पुस्तकों की मरहम पट्टी करने कि सोची है. पुस्तकालय के अन्दर बड़ी बड़ी हवादार खिडकियों के बावजूद वहाँ की हवा दमघोंटू थी. मेरा दम घुट रहा था. हो सकता है कि अव्यवस्था को सहने का जिस तरह हम आदी हो चुके हैं उसको देखते हुए आप यह भी बर्दाश्त कर लेंगें. पर सिर्फ तभी तक के लिए जब तक कि आप आलमारियों में बेतरतीब से रखे पुस्तकों में से किसी एक पुस्तक को जिज्ञासावश निकालने के लिए अपने हाथ नहीं बढ़ा देते. पुस्तकों पर इतनी मोटी धूल कि किसी भी पुस्तक का नाम तक पढ़ना मुश्किल. आलमारियों पर लगे मकरजाला को देखकर तो यही लगता था कि शायद महीनों से किसी ने इन पुस्तकों को हाथ नहीं लगाया है और महीनों या यूं कहें सालों से इनपर जमी धूल को किसी ने झाड़ने की जहमत नहीं उठायी है.  
मुझे नहीं लगा कि पुस्तकालय के कर्मचारियों को इस बात का आभास भी था कि नहीं कि वे पुस्तकालय में काम करते हैं. पुस्तकालय को जिस स्थिति में इन कर्मचारियों ने रखा हुआ है उससे तो यही लगता है कि उन्हें किसी भी तरह का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है. उनके लिए पुस्तकालय में काम करना किसी अन्य दफ्तर में काम करने से कतई अलग नहीं. 
पुस्तकालय में कर्मचारियों का अभाव है ऐसा नहीं लगता.पर पुस्तकालय का रखरखाव कौन करे. एक टेबल पर कुछ कुछ किताबें रखी थीं और एक सज्जन, जो हर तरह से उस पुस्तकालय के अभिभावक लग रहे थे, गर्दन में बेल्ट लगाए एक महिला से बातचीत में मशगूल थे. उनकी कुर्सी से महज कुछ दूरी पर ही पिछली रात की आंधी-तूफ़ान में कुछ पुस्तकों से आजाद हुए कुछ पन्ने बिखड़े पड़े थे पर उनको या किसी और कर्मचारी को भला इस बात से क्या लेना देना. 
यहाँ संसाधनों का कतई अभाव नहीं है. जिस बात का अभाव है वह है ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का. इस पुस्तकालय की यह दशा सिर्फ इस लिए है क्योंकि उसके लाइब्रेरियन से लेकर अन्य कर्मचारी तक सब के सब कामचोर हैं. किसी को इस बात से मतलब नहीं कि वे कितने अहम् संस्थान में काम करते हैं और उनकी कर्मठता उनके शहर की प्रतिष्ठा बढायेगी और लोगों में पुस्तक प्रेम जगाने का वह जरिया बन सकते हैं. पुस्तकालय में काम करने वाले कर्मचारियों के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है कि उनके पुस्तकालय में पुस्तक प्रेमियों का हमेशा मेला लगा रहे. पर इस सब की कल्पना दरभंगा में करना ....छोडिये इन बातो को. मैथिलों की एक ही खूबी है और वो यह कि वो गाल अछा बजा लेते हैं...अपनी खुद की पीठ को थपथपाने की कला कोई यहाँ के लोगों से सीखे. 

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