जब दिन से छिन जाता है
उस दिन का सूरज
शाम के दामन में
वह तोड़ देता है अपना दम
और पीछे छूट जाता है
एक कोलाहल
जिसमें दबा रह जाता है
हमारे और तुम्हारे
जीवन-संघर्ष का संगीत
हर शाम जब
फलक पर सजते हैं
असंख्य दीये
कहीं न कहीं
रोशनी का एक कतरा
सिर छिपाने के लिए
ढूंढ रहा होता है
एक एकांत
और अंधकारमय
कोना
हर रात जब
अपनी मंजिल से दूर
धरती के किसी अनजान हिस्से में
किसी पथिक की आँखें
ढूंढती हैं कोई आश्रय
दूर कोई गा रहा होता है
दिन की मर्शिया का
अंतिम पद
अशोक
मीना बाजार
दुबई
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